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व्याख्यान

विविध विषय

स्वामी विवेकानंद


अवतार

ईसा ईश्वर थे- सदगुण ईश्वर, मानव के रूप में। उन्होंने अपने अपने आप को विविध रूपों में अनेक बार प्रकट किया और इन रूपों की ही तुम उपासना कर सकते हो। ईश्वर को उसके निरुपाधिक रूप में पूजा नहीं जाता। ऐसे ईश्वर की पूजा अर्थहीन होगी। हमें इसलिए ईसा को, ईश्वर के मानवीय अवतार को पूजना चाहिए। तुम ईश्वर के अवतार की अपेक्षा उच्चतर अन्य किसी की उपासना नहीं कर सकते। ईसा से भिन्न ईश्वर की पूजा तुम जितना शिध्र छोड़ दो,उतना ही अच्छा। जिस ये हुआ की तुमने सृष्टि की, उससे सुंदर ईसा की तुलना करो। जब जब तुम ईसा से परे परमेश्वर बनाने का प्रयत्न करते हो, तब तब तुम समस्त वस्तु को नष्ट कर डालते हो। केवल ईश्वर की पूजा कर सकता है। यह मनुष्य के हाथ की बात नहीं। और उस ईश्वर के सर्वसाधारण रूपों से परे उसकी पूजा का कोई भी मानवीय प्रयत्न खतरे से खाली नहीं होगा। यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो ईसा के निकट रहो ; तुम जिस किसी ईश्वर की कल्पना करते हो, वह उससे ऊँचा है। यदि तुम सोचते हो कि ईसा मनुष्य थे, उनकी पूजा मत करो ; परंतु जैसे ही तुम्हें यह ज्ञान हो जाय कि वह ईश्वर थे, उनकी पूजा करो। जो यह कहते हैं कि वे मनुष्य थे और उसके बाद उनकी पूजा करते हैं, वे पाखंडी हैं; तुम्हारे लिए कोई माध्यम मार्ग नहीं है; तुम्हें उसकी पूरी शक्ति लेनी चाहिए। 'जिससे पुत्र को देखा'; और पुत्र को देखे बिना पिता के दर्शन असंभव हैं। यह केवल शब्दाडंबर है, फेनिल दर्शन और सपने हैं और निरी कपोल-कल्पना है परंतु यदि आध्यात्मिक जीवन के ऊपर अधिक चाहते हो, तो ईसा के रूप मैं अभिव्यक्त ईश्वर के सन्निकट रहो।

दार्शनिक दृष्टि से बुद्ध या ईसा जैसा कोई मनुष्य नहीं था; हमने उनके रूप में ईश्वर को देखा। क़ुरान में, मुहम्मद बार बार कहते हैं कि ईसा को सूली पर नहीं चढ़ाया गया, वह केवल उसका रूपक है, ईसा को कोई भी क्रूसित नहीं कर सकता।

दार्शनिक धर्म की निम्नतम भूमिका द्वैतवाद है, और उच्चतम त्रयात्मक है। प्रकृति और जीवात्मा में ईश्वर बसा हुआ है , और इसी को हम ईश्वर, प्रकृति और आत्मा की त्रयी के रूप में देखते हैं। साथ ही तुम्हें इस बात की भी झलक मिलती है कि ये तीनों एक ही के तीन परिणाम हैं। जिस प्रकार से यह शरीर आत्मा का ब्राह्मवरण है, आत्मा भी ईश्वर का शरीर है। जैसे मैं प्रकृति की आत्मा हूँ; उसी प्रकार ईश्वर आत्मा की आत्मा है। तुम्हीं वह केंद्र हो, जिसमें से तुम वह सारी प्राकृतिक देखते हो, जिसमें तुम भी हो। यहाँ प्रकृति,आत्मा और ईश्वर सब मिलकर एक व्यक्ति बनते है,, जो यह विश्व है। इसलिए वे एक इकाई हैं; फिर वे साथ ही भिन्न भी हैं। फिर एक दूसरे प्रकार की त्रयी है, जो कि ईसाई त्रयी (ट्रिनिटी) जैसी है। ईश्वर परम या निरुपाधिक है। हम ईश्वर को उसके निरुपाधिक रूप में देख नहीं सकते। उसके विषय में हम केवल 'नेति, नेति, कह सकते हैं। फिर भी ईश्वर के निकटतम सामीप्य के रूप में कुछ गुण हम पा सकते हैं। प्रथम है उसका अस्तित्व (सत), दूसरा है उसका ज्ञान (चित्त), तीसरा है आनंद ये तुम्हारे पिता, और पवित्र आत्मा (HOLY GHOST) के बहुत कुछ सदृश हैं, जिसमें वस्तुएँ निर्मित होती हैं; पुत्र वह ज्ञान है। ईसा ईश्वर अभिव्यक्त होता है। ईसा से भी पहले ईश्वर सर्वत्र था जीव मात्र में था। परंतु ईसा में हम 'उसके' संबंध में सचेतन होते हैं। परमेश्वर है। तीसरी बात है आनंद पवित्र आत्मा। ज्योंही यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तुमको आनंद मिलता है। ज्यों ही तुम अपने भीतर ईसा को पाने लगते हो, आनंद मिलता है; और वही तीनों को एक बनाता है।

जीवन और मृत्यु के नियम - १

(ओकलैंड में मार्च ७, १९०० ई० को दिए हुए व्याख्यान का विवरण; साथ में 'ओकलैंड ट्रिब्यून' पत्रिका की संपादकीय टिप्पणी भी है)

स्वामी विवेकानन्द ने कल शाम को 'जीवन और मृत्यु के नियम' विषय पर एक व्याख्यान दिया। स्वामी जी ने कहा:

'इस जीवन-मरण से कैसे मुक्त हों स्वर्ग में कैसे जाय, यह प्रश्न नहीं है, परंतु स्वर्ग में जाने से कैसे बचें यही हर हिंदू की खोज का लक्ष्य है।

स्वामी जी ने यह भी कहा कि कोई वस्तु अकेली नहीं है प्रत्येक वस्तु अनंत कार्य-कारण परंपरा का अंश है। यदि मनुष्य से भी उच्चतर कोई सत्ता है, तो उसे भी इन नियमों का पालन करना पड़ता है। जीवन से ही जीवन निकलता है, विचार,जड़-द्रव्य से जड़ द्रव्य। किसी विश्व की सृष्टि केवल जड़-द्रव्य से नहीं की जा सकती। वह तो सदा से रहा है। यदि मानव प्राणी सीधे प्रकृति से इस जगत में आता, तो वह बिना किसी संस्कार के आता; परंतु हम इस तरह से नहीं जनमते; इसका अर्थ है कि हमारी सृष्टि नयी नहीं है। यदि मानवीय आत्माएँ शून्य से उत्पन्न होतीं, तो उन्हें शून्य में पुन: लौटने से रोकनेवाला क्या है? यदि हम भविष्य में सदा विद्यमान रहनेवाले हों, तो अतीत में भी सदा विद्यमान रहते आए होंगे।

हिंदू का विश्वास है कि आत्मा न मन है, न शरीर। कौन सी वस्तु स्थायी रहती है-कौन सी वस्तु कह सकती है, "मैं मैं हूँ"? शरीर नहीं। चूँकि वह सदा बदलता रहता है; मन भी नहीं, जो शरीर से जल्दी बदलता है, थोड़े से क्षणों के लिए भी जिसके वे ही विचार नहीं रहते। ऐसी ऐसी कोई सदा रहनेवाली एक पहचान होनी चाहिए-मनुष्य के लिए ऐसा कुछ, जैसे कि नदी के किनारे हों-ऐसे किनारे जो बदलते नहीं होगी। शरीर के पीछे, मन के पीछे ऐसी कोई चीज-आत्मा-जरूर होगी, जो मनुष्य को एकीकृत रखती है। मन केवल एक सूक्ष्म साधन है, जिसके माध्यम से आत्मा-स्वामी-शरीर पर क्रियाशील है। भारत में जब मनुष्य मरता है,तो हम कहते हैं, उसने देह त्याग दिया; तुम लोग कहते हो, उसने आत्मा त्याग दी (गिव अप दि गोस्ट)। हिंदू विश्वास करते हैं कि मनुष्य एक आत्मा है, शरीर भी होता है। पश्चिम के लोग विश्वास करते हैं कि वह एक शरीर है, जिसके आत्मा होती है।

जो कुछ विषमता है,उसे मृत्यु आत्मसात कर लेती है। आत्मा एकात्मक तत्त्व है; वह किसी अन्य वस्तु से बनी हुई नहीं है। और इसलिए वह मर नहीं सकती। अपने स्वभाव से ही आत्मा अमर है। शरीर, मन और आत्मा नियमों के चक्र पर घूम रहे हैं कोई बच नहीं सकता। हम उसी तरह से इन नियमों से अलग नहीं हो सकते। उनसे ऊपर नहीं उठ सकते, जैसे ग्रह- नक्षत्र या सूर्य यह सब एक नियमों का विश्व है। कर्म का नियम यह है कि प्रत्येक कार्य का आज नहीं तो कल, देर-सबेर परिणाम होता ही है। वह मिस्त्र का बीज जो कि एक मृत 'ममी' के हाथ से लिया गया और ५,००० वर्षों बाद बोने से फिर अंकुरित हुआ, वैसे ही मानवीय कर्मो का अनंत प्रभाव होता है। कर्म कर्म को उत्पन्न किए बिना मर नहीं सकता। अब यदि कर्म अस्तित्व के इस धरातल पर ही अभीष्ट फल उत्पन्न कर सकते हैं,तो इसका अर्थ यह है कि हम सबको कार्य-कारण परंपरा के वृत्त को पूरा करना होगा। यही पुनर्जन्म का सिद्धांत है। हम नियमों के दास हैं, आचरण के दास हैं, तृष्णा, क्षुधा-तृषा जैसी हजारों चीजों के दास हैं। जीवन से भागकर ही हम दासत्ता से मुक्ति की ओर भाग सकेंगे। केवल ईश्वर ही मुक्त है। ईश्वर और मुक्ति एक और अभिन्न है।

जीवन और मृत्यु के नियम-२

प्रकृति में सभी व्यापार नियमानुसार होते हैं। कोई अपवाद नहीं है। मन और बाह्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु नियम से नियंत्रित और शासित है।

आन्‍तरिक और बाह्य प्रकृति, मन और जड़-द्रव्य, देश-काल में हैं और कार्य कारण के नियम से बँधे हैं।

मन की स्वतंत्रता एक भ्रम है। जब मन कर्म-नियम से बँधा है, तो वह मुक्त कैसे हो सकता है?

कर्म का नियम कार्य-कारण का नियम है।

हमें मुक्त होना चाहिए। हम मुक्त हैं; उसे जानना हमारा काम है। हमें सारी दासता छोड़ देनी चाहिए, सब प्रकार के सारे बंधन छोड़ देने चाहिए। हमें न केवल इस पृथ्वी से और पृथ्वी के हर वस्तु और हर जीव से अपना बंधन छोड़ना चाहिए, वरन स्वर्ग और सुख की कल्पनाएँ भी छोड़ देनी चाहिए।

हम पृथ्वी से बँधे हैं। वासना से, और ईश्वर, स्वर्ग और देवदूतों से भी बँधे हैं दास तो दास ही रहता है, चाहे वह मनुष्य का हो, ईश्वर या देवदूतों का हो।

स्वर्ग की कल्पना नष्ट होनी चाहिए। मरण के बाद ऐसे स्वर्ग की कल्पना, जहाँ अच्छे लोग अनंत सुख का जीवन व्यतीत करते हैं, एक खोखला स्वप्न है, उसमें किंचित्त भी तत्त्व या अर्थ नहीं है। जहाँ भी सुख है, वहाँ दु:ख कभी न कभी आता ही है। जहाँ जहाँ भोग है, पीड़ा भी है। यह बिल्कुल निश्चित है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया भी किसी न किसी प्रकार होती ही है।

स्वतंत्रता की कल्पना है हर वस्तु से स्वतंत्रता, संवेदनाओं से स्वतंत्रता, चाहे वे सुख की हों या दु:ख की, शुभ से और अशुभ से भी।

बल्कि इसमें भी अधिक। हमें मृत्यु से मुक्त होना चाहिए। और मृत्यु से मुक्त होने के लिए हमें जीवन से मुक्त होना चाहिए। जीवन केवल मृत्यु का सपना है। जहाँ जीवन है, वहाँ मृत्यु है; इसलिए मृत्यु से मुक्त होना हो तो जीवन से दूर होना चाहिए।

हम सदा मुक्त हैं,यदि हम केवल इस पर विश्वास भर करें, केवल पर्याप्त श्रद्धा। तुम आत्मा हो, मुक्त और शाश्वत, चीर मुक्त, चिर पवित्र। अभीष्ट श्रद्धा रखो और क्षण भर में तुम मुक्त हो जाओगे।

हर वस्तु देश, काल, कार्य-कारण से बँधी है। आत्मा सब देश,सब काल, सब कार्य-कारणों से परे है। जो बँधी है, वह प्रकृति है, आत्म नहीं।

इसलिए अपनी मुक्ति घोषित करो और जो हो, वह बनो सदा मुक्त, सदा पवित्र।

देश, काल, कार्य-कारण को हम माया कहते हैं।

पुनर्जन्म

(मेंफिस में १९ जनवरी,१८९४ ई० को दिया हुआ भाषण। 'अपील एवंलांश' में प्रकाशित)

पगड़ी एवं पीत वस्त्रधारी संन्यासी स्वामी विवेकानन्द [1] ने थर्ड स्ट्रीट में स्थित 'ला सैलेट अकादमी' में पर्याप्त संख्या में एकत्र गुणग्राही श्रोताओं के सम्मुख पुन: भाषण दिया।

विषय था 'आत्मा का जन्मांतर अथवा पुनर्जन्म'। संभवत: 'विवेकानन्द' और विषय की अपेक्षा इस विषय पर बोलते हुए अधिक जोरदार प्रतीत हुए, ऐसा कहा जा सकता है। पूर्वीय जातियों में एक बड़ा व्यापक रूप से मान्य विश्वास है और वे देश-विदेश सभी जगह ईसा प्रतिपादन करने के लिए सतत प्रस्तुत रहते हैं। जैसा कि विवेकानन्द (विवेकानन्द) ने कहा: "तुम लोगों में से बहुत से लोग यह नहीं जानते कि यह समस्त प्राचीन धर्मों का एक प्राचीनतम धार्मिक सिद्धांत है। यह फैरीसियों (यहूदी कर्मकांडियों), यहूदियों और ईसाई धर्म-संघ के प्राचीन आचार्यों को विदित था और अरब निवासियों का यह सामान्य विश्वास था। यह अब भी हिंदुओं और बौद्धों में अवशिष्ट है।

"विज्ञान,जो शक्तियों का चिंतन मात्र है, के युग के आगमन के पूर्व तक यही दशा रही। अब तुम इस सिद्धांत को नैतिकता के लिए विनाशकारी मानते हो। इस तर्क तथा इसके तार्किक एवं दार्शनिक रूपों का पूर्ण सर्वेक्षण करने के लिए हमें समस्त पृष्ठभूमि को देखना होगा। हम सभी लोग इस विश्व के एक नैतिकता पूर्ण शासक में विश्वास करते हैं, फिर भी प्रकृति हमारे सामने न्याय के बजाय अन्याय प्रकट करती है। एक मनुष्य अच्छी से अच्छी परिस्थितियाँ उपलब्ध रहती हैं।

वे सब उसके लिए सुख और श्रेयस प्रदान करनेवाली होती हैं। दूसरा जन्म लेता है और प्रत्येक पग पर उसका जीवन उसके पड़ोसी से भिन्न होता है। वह भ्रष्ट जीवन बिताता हुआ समाज-बहिष्कृत होकर मरता है। सुख के विवरण में इतनी निष्पक्षता (पक्षपात?) क्यों है ?

"पुनर्जन्म का सिद्धांत तुम्हारे सामान्य विश्वास के असंगत स्वर का समाधान करता है। अनैतिक बनाने के बजाय यह मत हमें न्याय का भाव प्रदान करता है। तुममें से कुछ कहते हैं:'यह ईश्वर की इच्छा है'। यह कोई उत्तर नहीं हुआ। यह अवैज्ञानिक है। प्रत्येक बात का कोई कारण होता है। समस्त कारण और संपूर्ण कार्य-कारण-सिद्धांत ईश्वर पर छोड़कर हम उसे एक अनैतिक प्राणी बना देते हैं। किंतु भौतिकवाद उतना ही असंगत है, जितना कि दूसरा। जहाँ तक हम समझते हैं, प्रत्यक्ष-बोध (कार्य-कारण?) सभी वस्तुओं में सन्निहित है। अतएवं, इन कारणों से आत्मा के जन्मांतर का सिद्धांत आवश्यक है। यहाँ हम सभी जन्म लेते हैं। क्या यह प्रथम सृष्टि है? क्या सृष्टि शून्य से उत्पन्न होनेवाली वस्तु है? पूर्ण रूप से विश्लेषण करने पर यह वाक्य निरर्थक सिद्ध होता है। सब सृष्टि नहीं, अपितु अभिव्यक्ति है।

"कोई चीज उस कारण का कार्य नहीं हो सकती है, जिसका अस्तित्व ही न हो। यदि मैं अपनी अँगुली आग पर रखता हूँ, तो साथ साथ जलने की क्रिया होती है और मैं जानता हूँ कि जलने का कारण है, मेरा अपनी अँगुली को आग के संपर्क में रखना। जहाँ तक प्रकृति की बात है, कभी ऐसा नहीं था, जबकि प्रकृति का अस्तित्व न रहा हो, क्योंकि कारण का अस्तित्व सदैव था। परंतु तर्क के लिए मान लो कि एक ऐसा समय था, जब अस्तित्व नहीं था। तब यह सब पदार्थ-समूह कहाँ था? किसी नयी वस्तु की सृष्टि के लिए विश्व में उतनी ही अधिक और शक्ति को जोड़ना होगा। यह असंभव है। पुरानी वस्तुओं की पुनर्रचना हो सकती है, किंतु विश्व में किसी चीज को जोड़ा नहीं जा सकता।

"पुनर्जन्म के सिद्धांतके समर्थन में कोई गणितीय व्याख्या नहीं की जा सकती। तर्कशास्त्र के अनुसार कल्पना एवं परिकल्पना के ऊपर विश्वास नहीं करना चाहिए। परंतु मेरा मत है कि जीवन के तथ्य की व्याख्या के लिए मानवीय मस्तिष्क द्वारा इससे बढ़कर कोई दूसरी परिकल्पना कभी नहीं प्रस्तुत की गयी।

"मिनियापोलिस नगर से रवाना होनेवाली एक गाड़ी पर मेरे साथ एक विचित्र घटना हुई। गाड़ी पर एक ग्वाला था। वह नीली नाक की नस्ल का प्रेसबिटेरियन और ग्राम्य प्रकार का व्यक्ति था। उसने आकार मुझसे पूछा कि मैं कहाँ का रहनेवाला हूँ। मैंने भारत बताया। 'आप कौन हैं ? उसने कहा। मैंने उत्तर दिया 'हिंदू'। तब उसने कहा, 'तुम अवश्य नरक में जाओगे। ' मैंने उसे इस सिद्धांत के बारे में बताया और मेरी व्याख्या के बाद उसने कहा कि मेरा इसमें सदैव विश्वास रहा है, क्योंकि उसने बताया कि एक दिन जब हम वह एक लकड़ी के कुंदे को चीर रहा था, उसकी बहन उसके कपड़े पहनकर आयी और बोली कि वह पहले पुरुष थी। इसी कारण वह आत्मा के जन्मांतर में विश्वास रखता था। इस सिद्धांत का समग्र आधार है: यदि किसी आदमी के कार्य अच्छे हैं तो, वह अवश्य ही उच्च कोटि का जन्म लेगा और यही बात विपरीत कम से भी होगी

"इस सिद्धांत में एक दूसरी सुंदरता भी-है वह हमें नैतिक प्रेरणा प्रदान करता है। जो हुआ सो हुआ। वह कहता है,'आह, और अच्छे ढंग से कार्य किया जाता! 'अपनी अँगुली आग में न डालो। प्रत्येक क्षण एक नया अवसर है।

"विवेकानन्द इसी प्रकार कुछ समय तक बोलते रहे और बार बार लोगों ने करतल-ध्वनि की। स्वामी विवेकानन्द 'ला सैलेट अकादमी' में भारत के रीति-रिवाज पर आज शाम को ४ बजे पुन: भाषण देंगे।

आत्मा और प्रकृति

धर्म का अर्थ है, आत्मा को आत्मा के रूप में उपलब्ध करना, न कि जड़-द्रव्य के रूप में।

धर्म एक विश्वास है। हर एक को उसका अनुभव स्वयं करना चाहिए। ईसाई विश्वास करते है कि ईसा ने मनुष्यों के लिए प्राण दिए। तुम्हारी मुक्ति होती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कोई भी सिद्धांत मान सकता है या किसी भी सिद्धांत को नहीं मान सकता है। ईसा किसी समय- विशेष में थे या नहीं, इससे तुम्हारे लिए क्या अंतर क्या पड़ता है? तुमको इससे क्या लेना देना है कि मूसा ने जलती हुई झाड़ी में ईश्वर के दर्शन किए ? मूसा ने जलती झाड़ी में ईश्वर-दर्शन किए,उसका अर्थ यह तो नहीं हो जाता कि तुमने दर्शन किए। यदि इसका अर्थ यही हो, तो मूसा ने खाया इतना काफी है कि तुमको खाना बंद कर देना चाहिए। पहली बात उतनी अर्थ रखती है, जितना दूसरी। प्राचीन महान आध्यात्मिक व्यक्तियों के जीवन से हमें कोई लाभ नहीं होता, सिवा इसके कि हम उन्हीं की तरह कार्य करने के लिए प्रेरित हों,धर्म का अनुभव स्वयं करें। ईसा या मूसा या और किसी ने जो कुछ किया, उससे हमे कोई मदद नहीं मिलती, केवल आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।

प्रत्येक का अपना एक विशेष स्वभाव होता है। उसी तरह वह चलता है और उसी तरह से स्वतंत्रता का मार्ग मिलता है। तुम्हारे गुरु को तुम्हें यह बतलाने में समर्थ होना चाहिए कि प्रकृति में कौन सा विशेष मार्ग तुम्हारे लिए उचित है और उसी पर तुम्हें ले जाना चाहिए। तुम्हारा चेहरा देखकर ही गुरु को यह जान लेना चाहिए कि तुम किस पथ के हो और उसी पर तुम्हें अग्रसर कर देना चाहिए। तुम्हें दूसरे के मार्ग पर कभी नहीं जाना चाहिए।,चूँकि वह उसका पथ है, तुम्हारा नहीं। जब वह मार्ग मिल जाता है,तो तुम्हें हाथ बांधे रहने के अतिरिक्त कुछ करना नहीं रह जाता,वह ज्वार तक तुम्हें मुक्ति तक ले जाएगा। इसलिए जब तुम्हें वह मिले, उससे विचलित न हो। तुम्हारा मार्ग तुम्हारे लिए सर्वोत्तम है, परंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि औरों के लिए भी वह सर्वोतम है।

सच्चे अध्यात्मवादी आत्मा को आत्मा की तरह देखते हैं। उसे जड़-द्रव्य नहीं मानते। आत्मा से ही प्रकृति परिचालित होती है, वही प्रकृति के मध्य सत्य है। इसलिए कर्म प्रकृति में है, आत्मा में नहीं। आत्मा सदा समरस, अपरिवर्तित, अनंत रहती है। आत्मा और जड़-द्रव्य वस्तुत:एक ही हैं; परंतु आत्मा आत्महत्या कभी जड़-द्रव्य नहीं बनती; और न जड़-द्रव्य कभी आत्मा बनता है।

आत्मा कभी क्रिया नहीं करती। वह क्यों करे? वह केवल है,और उतना ही काफी है। वह शुद्ध और परम अस्तित्व है, और क्रिया की उसे आवश्यकता नहीं। तुम नियम से आबद्ध नहीं हो। तुम्हारी प्रकृति में है। मन प्रकृति में है और नियम से बंधा है। सारी प्रकृति नियम से बँधी है, अपनी ही क्रिया के नियम से;और यह नियम कभी भंग नहीं किया जा सकता। यदि तुम प्रकृति का नियम भंग कर सको, तो एक क्षण में सारी प्रकृति नष्ट हो जाय। फिर प्रकृति ही न रहे। जो मुक्ति पाता है, प्रकृति का नियम तोड़ता है। उसके लिए प्रकृति पीछे हट जाती है और प्रकृति की शक्ति उस पर नहीं रहती। प्रत्येक व्यक्ति नियम को भंग करेगा, केवल एक बार और सदा के लिए; और इस प्रकार उसका प्रकृति के साथ समाप्त हो जाएगा।

सरकारें, समाज यदि सापेक्ष बुराइयाँ हैं। दोषयुक्त सिद्धांतों पर आधारित हैं। ज्यों ही तुम अपने को एक संगठन में विन्यस्त करते हो, तुम उस संगठन के बाहर के हर व्यक्ति से घृणा करने लगते हो। किसी भी संगठन में सम्मिलित होने का अर्थ है, अपने आप को बंधन लगाना, अपनी स्वतंत्रता को सीमित करना। सर्वोत्तम शुभ उच्चतम स्वतंत्रता है। हमारा उद्देश्य होना चाहिए, इस पर स्वतंत्रता की ओर व्यक्ति को बढ़ने की अनुमति देना। जितना अधिक शुभ होगा, उतने ही कम कृत्रिम नियम होंगे। ऐसे नियम नियम ही नहीं। यदि कोई नियम होता, तो वह तोड़ा नहीं जा सकता। सचाई यह है कि ये तथाकथित नियम तोड़े जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि ये नियम नहीं है। नियम वही है। जो तोड़ा न जा सके।

जब कभी तुम एक विचार का दमन करते हो, वह केवल दमन के द्वारा संचित सारी शक्ति के साथ अवसर मिलते ही क्षण में पुन: उछल आने के लिए ही कमानी की कुंडली की तरह दबकर दृष्टि से ओझल हो जाता है; और इस प्रकार से कुछ ही क्षणों में वह इतना सब कर डालता है, जिसे करने में वैसे उसे बड़ा समय लगता !

सुख के प्रत्येक तोले के साथ सेर भर दु:ख भी आता है। वस्तुत: वही शक्ति है, जो आ एक समय सुख बनकर व्यक्त होती है, और दूसरे समय पर दु:ख बनकर। ज्यों ही संवेदनाओं की एक सरणी समाप्त हुई, त्यों ही दूसरी शुरू हो जाती है। परंतु कुछ अधिक विकसित व्यक्तियों में, एक-दो नहीं, साथ सैकड़ों विभिन्न विचार एक ही समय सक्रिय रूप से काम कर सकता हैं।

मन अपने ढंग की प्रतिक्रिया है। मन की क्रिया का अर्थ है सर्जन। विचार के पीछे चलते हैं शब्द और शब्द रूप। मन आत्मा को प्रतिबिंबित कर सके, इसके लिए मानसिक और भौतिक दोनों ही प्रकार की सर्जना का समाप्त हो जाना अनिवार्य है।

सृष्टि -रचन वाद का सिद्धांत

यह कल्पना कि प्रकृति के सारे व्यवस्थित विन्यासों में विश्व के स्त्रष्टा की कोई पूर्व-योजना (या परिकल्पना) दिखायी देती है, शिशुशाला के बच्चों को परमेश्वर के सौंदर्य, शक्ति और महिमा को दिखाने के लिए अच्छा पाठ है, जिसके द्वारा वे धर्म के क्षेत्र में ईश्वर की दर्शनसम्मत धारणा तक कमश: बढ़ सकें। परंतु इससे अधिक इसका कोई महत्व नहीं, यह एक़दम तर्कहीन जान पड़ती है। यदि ईश्वर को सर्वशक्तिमान मान जाय, तो दार्शनिक विचार के नाते इसकी कोई भित्ति या आधार नहीं।

यदि प्रकृति विश्व के निर्माण में परमेश्वर की शक्ति का प्रमाण है, तो इस कार्य में पूर्व-योजना मानना भी उस ईश्वर की कमजोरी सिद्ध करना है। यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है,उसे तो उसे पूर्व-योजना की क्या आवश्यकता? कोई भी कार्य करने के लिए उसे रूपरेखा क्यों चाहिए? उसे तो सिर्फ इच्छा भर करनी है, और वह पूरी हो जा सकती है। कोई प्रश्न, कोई रूपरेखा, कोई योजना प्रकृति में ईश्वर की नहीं चाहिए।

यह भौतिक जगत मनुष्य की सीमित चेतना का परिणाम है। जब मनुष्य अपने देवत्व को जान लेता है, तो सब जड़-द्रव्य, सब प्रकृति, जैसा कि हम उसे जानते हैं, समाप्त हो जाते हैं।

इस भौतिक जगत का, जैसा कि हम जानते हैं। सर्वसाक्षिन की चेतना में कोई स्थान नहीं, किसी भी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह आवश्यक नहीं। यदि ऐसा कोई पूर्वोद्देश्य होता, तो परमेश्वर विश्व से सीमित हो जाता। यह कहना कि प्रकृति उसी की अनुमति से अस्तित्ववान है, यह अर्थ नहीं रखता कि उस परमेश्वर के लिए मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए या अन्य किसी कारण से यह प्रकृति आवश्यक है।

यह सृष्टि मनुष्य की आवश्यकता के लिए है, ईश्वर की नहीं। इस विश्व की योजना में ईश्वर की कोई पूर्व-योजना नहीं। यदि वह सर्वशक्तिमान है,तो वह हो ही कैसे सकती है? कोई भी काम करने के लिए उसे कोई पूर्व-योजना, परिकल्पना, या कारण-विशेष की क्या आवश्यकता है? यह कहना कि ऐसी योजना है, उसे सीमित करना है और उसे अपने सर्वशक्तिमान स्वरूप से वंचित्त करना है।

उदाहरण के लिए, यदि तुम किसी बड़ी चौड़ी नदी के पास आओ, इतनी चौड़ी कि बिना पुल बनाए तुम उसे पार ही न कर सको, तो यह तथ्य कि तुम को पुल बनाना पड़ेगा और उसके बिना नदी के पार भी जा सकते, तुम्हारी सीमा, तुम्हारी कमजोरी दिखाएगा,यद्यपि पुल बनाने की योग्यता तुम्हारी शक्ति भी व्यक्त करेगी। यदि तुम सीमित न होते या सहज उड़ सकते या उस पार उड़ सकते, तो तुमको पुल बनाने की जरूरत नहीं होती; और सिर्फ अपनी शक्ति दिखाने के किए पुल बनाना भी पुन: एक प्रकार की कमजोरी होती, चूँकि उससे और कोई गुण नहीं, केवल तुम्हारा अहंकार प्रकट होता। अद्वैत और द्वैत मूलत: एक ही है। अंतर केवल अभिव्यंजना का है। जैसे द्वैतवादी परम पिता और परम पुत्र को दो मानते हैं; अद्वैतवादी दोनों को ही समझते हैं। द्वैत प्रकृति में, रूप में और अद्वैत शुद्ध अध्यात्म उसके साररूप में है।

त्याग और वैराग्य का भाव सभी धर्मों में है और वह परमेश्वर तक पहुँचने का एक साधन माना गया है।

तुलनात्मक धर्म-विज्ञान

(जनवरी २१ , १८९४ ई० का मेम्फ़िस में दिया हुआ व्याख्यान: ' अपील एवलांश की रिपोर्ट के आधार पर)

तरुण यहूदी संघ के (यंग मैंस हिब्रू एसोसिएशन) हाँल में स्वामी विवेकानन्द ने कल रात 'तुलनात्मक धर्म-विज्ञान' पर एक भाषण दिया। यह व्याख्यानमाला का सर्वोत्कृष्ट भाषण था और निस्संदेह उससे नगर के लोगों में इस विद्वान के प्रति व्यापक प्रशंसा-भाव जाग्रत हुआ।

अब तक विवेकानन्द किसी न किसी दानार्थी विषय (या संस्था) के निमित्त व्याख्यान देते रहे हैं और यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उनके द्वारा उनको आर्थिक सहायता प्राप्त हुई है लेकिन कल रात, उन्होंने अपने ही निमित्त भाषण दिया। यह भाषण विवेकानन्द के श्री हू ल० ब्रिंकले नामक एक घनिष्ठ मित्र और बहुत अच्छे प्रशंसक ने आयोजित किया था और उन्होंने ही सारा खर्च वहन किया। इस सुविख्यात पूर्वी व्यक्ति को सुनने, इस नगर में अंतिम बार दो सौ के करीब लोग कल रात उस हाल में आए थे।

अपने व्याख्यान के विषय के संबंध में पहला जो वक्ता ने प्रतिस्थापित किया,वह था:'जैसा विभिन्न मतवादों की मान्यता है, धर्मों में क्या वैसे कोई अंतर है?'

उन्होंने कहा कि अब कोई अंतर नहीं है, और वे सब धर्मों द्वारा की हुई प्रगति का सिंहावलोकन करके उनकी प्रस्तुत स्थिति पर पुन: आ गए। उन्होंने दिखाया कि परमेश्वर की कल्पना के विषय में आदिवासी मनुष्य में भी ऐसा मतभेद अवश्य रहा होगा। परंतु ज्यों-ज्यों संसार की नैतिकता और बौद्धिकता प्रगति क्रमश:होती गयी, भेद अधिकाधिक अस्पष्ट होते गए। यहाँ तक कि अंत में वह पूरी तरह मिट गए, और अब एक ही सर्वव्यापी सिद्धांत बच रहा और वह है परम अस्तित्व का।

वक्ता ने कहा,"कोई जंगली आदमी भी ऐसा नहीं मिलता, जो किसी न किसी प्रकार के ईश्वर में विश्वास न करता हो।"

"आधुनिक विज्ञान यह नहीं कहता कि वह इसे ज्ञान का प्रकटन मानता है या नहीं। वन्य जातियों में प्रेम अधिक नहीं होता। वे वास में रहते हैं। उनकी अंधविश्वासभरी कल्पना में कोई ऐसी आसुरी शक्ति या दुष्टात्मा का चित्र रहता है,जिसके सामने वे डर और आतंक से काँपते रहते हैं। जो चीज उस आदिवासी को प्रिय है, वही उस दुष्ट शक्ति को भी प्रसन्न करेगी,ऐसा वह मानता है। जो कुछ उसे तृप्त करता है, वही उस आत्मा के कोप भी शांत करता होगा। इसी उद्देश्य से वह अपने साथी वनवासी के विरुद्ध भी काम करता है। "

इसके बाद वक्ता ने ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत कर यह बताया कि यह वनवासी अपने पितरों की पूजा करने लगा और बाद में झंझा-तूफान और गर्जन के देवता पूजने लगा। तब संसार का धर्म बहुदेवतावाद था। "सूर्योदय का सौंदर्य,सूर्यास्त की गरिमा,तारों से जड़ी रात के रहस्यमय रूप और घननाद और विद्युत की विचित्र ने इस इस आदमी मनुष्य को इतना अधिक प्रभात किया कि वह उसे समझ नहीं सका, और उसने एक अन्य उच्चतर और शक्तिमान व्यक्ति की कल्पना की, जो उसकी आँखों के सामने एकमात्र होनेवाली अनंतताओं को संचालित करता है," विवेकानन्द ने कहा।

बाद में और युग आया-- एकेश्वरवाद का युग। सभी देवता मानो एक में समाकर खो गए और उसे ईश्वरों का ईश्वर, इस विश्व का स्वामी माना गया। बाद में वक्ता ने इस काल तक आर्य जाति का इतिहास बताया, जहाँ" उन्होंने कहा था: "हम परमेश्वर में जीते और चलते हैं। वही गति है।"इसके बाद एक युग आया, जिसे दर्शन शास्त्र में 'सर्वेश्वरवाद का युग' कहा जाता है। इस जाति ने बहुदेवता को नहीं माना, और इस कल्पना को भी नहीं माना कि ईश्वर ही विश्व है, और कहा कि 'मेरी आत्मा की आत्मा ही वास्तविक सत है। प्रकृति ही मेरा अस्तित्व है और वह मुझ पर अभिव्यक्त होगी।"

विवेकानन्द ने बाद में बौद्ध-धर्म की चर्चा की। उन्होंने कहा कि बौद्ध न तो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार ही करते हैं, न अस्वीकार। इस विषय में जब बुद्ध से राय माँगी गयी, तो उन्होंने केवल यही कहा: "तुम दु:ख देखते हो। तो उसे कम करने का यत्न करो।" बौद्ध के लिए दु:ख सदा उपस्थित है,और समाज उसके अस्तित्व की मर्यादा निश्चित करता है। वक्ता ने कहा कि मुसलमान यहूदियों के प्राचीन व्यवस्था और ईसाइयों के नव व्यवस्थान को मानते हैं। वे ईसाइयों को पसंद नहीं करते, क्योंकि वे नास्तिक हैं, और व्यक्ति-पूजा की शिक्षा देते हैं। मुहम्मद सदा अपने अनुयायियों से कहते थे कि मेरी एक तस्वीर भी अपने पास न रखो।

"दूसरा प्रश्न जो उठता है, "उन्होंने कहा, "ये सब धर्म सच हैं, या कुछ धर्म सच हैं, कुछ झूठे हैं ? पर सब धर्म एक ही निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अस्तित्व निरुपाधिक या परम और अनंत है। एकता धर्म का उद्देश्य है। इस दृश्य जगत का नानात्व जो सब ओर दिखायी देता है, इसी एकता की अनंत विविधता है। धर्म के विश्लेषण से पता चलता है कि मनुष्य मिथ्या से सत्य की ओर नहीं जाता, परंतु निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर जाता है।

"एक आदमी बहुत से आदमियों के पास एकएक कोट लेकर आता है। कुछ कहते की यह कोट उनके नहीं आता। अच्छा तुम चले जाओ; तुम कोट नहीं पहन सकते। किसी भी ईसाई पादरी से पूछो कि उसके सिद्धांत और मतों से न मिलने-जुलनेवाले अन्य पंथों को क्या हो गया है कि वे तुम्हारे सिद्धांत और मतों के विरुद्ध हैं, तो वह उत्तर देगा: "ओह,वे ईसाई नहीं है।" परंतु हमारे यहाँ इससे श्रेष्ठ शिक्षा दी जाती है। हमारा अपना स्वभाव, प्रेम और विज्ञान हमें अधिक श्रेष्ठ शिक्षा देते हैं। नदी में उठनेवाली लहरियों को हटा दो, पानी रुककर सड़ने लगेगा। मतभेदों को नष्ट कर डालो और विचार मर जाएंगे। गति आवश्यक है। विचार मन की गति है, और जब वे रुक जाते हैं, तो मृत्यु शुरू हो जाती है।

"यदि किसी पनि के लिए गिलास की तली में हवा का एक साधारण कण भी रख दो, तो वह ऊपर के अनंत वातावरण से मिलने के लिए कितना संघर्ष करता है। आत्मा की भी वही दशा है। वह भी छटपटा रही है अपना शुद्धस्वरूप प्राप्त करने के लिए और अपने भौतिक शरीर से मुक्त होने के लिए। वह अपना अनंत विस्तार पुन: प्राप्त करना चाहती है। सब जगह यही होता है। ईसाइयों, बौद्धों, मुसलमानों, अज्ञेयवादियों या पुरोहितों में आत्मा निरंतर छटपटाती रहती है। एक नदी पर्वत के चक्रिल उत्संगों से होकर हजारों मिल बहती है, तब जाकर समुद्र को मिलती है और एक आदमी वहाँ खड़ा होकर कहता है कि 'ओ नदी, तुम वापस जाओ और नए सिरे से शुरू करो, कोई और अधिक सीधा रास्ता अपनाओ !" ऐसा आदमी मूर्ख है। तुम वह नदी हो, जो जायन (zion) की ऊँचाईयों से बहती आ रही है। मैं हिमालय की ऊँची चोटियों से बहता आ रहा हूँ। मैं तुमसे नहीं कहता, वापस जाओ और मेरी ही तरह नीचे आओ। तुम गलत हो। पर यह गलत से अधिक मूर्खता होगी, अपने विश्वास गलत से अधिक मूर्खता होगी। अपने विश्वासों से चिपटे रहो। सत्य कभी नहीं नष्ट होता, पुस्तकें चाहे नष्ट हो जाय, राष्ट्र चकनाचूर हो जाय, लेकिन सत्य सुरक्षित रहता है,जिसे कुछ लोग पुन: उठाते हैं और समाज को देते हैं,और वह परमेश्वर का महान अविच्छिन्न साक्षात्कार सिद्ध होता है।

धार्मिक एकता-सम्मेलन

(२४ सितम्बर १८९३ ई० के ' शिकागो संडे हेराल्ड ' में प्रकाशित एक भाषण की रिपोर्ट)

स्वामी विवेकानन्द ने कहा, "इस सभा में जो कुछ कहा गया है, उस सबका सामान्य निष्कर्ष यह है कि मानवीय बंधुता सबसे अधिक अभिशिष्ट लक्ष्य है। एक ईश्वर की संतान होने के नाते यह बंधुता एक स्वाभाविक स्थिति है। इसके संबंध में बहुत कुछ कहा जा सकता है। अब, कुछ ऐसे भी संप्रदाय हैं,जो ईश्वर के अस्तित्व को सगुण परमात्मा को स्वीकार नहीं करते। यदि हम उन संप्रदायों की अवहेलना नहीं करना चाहते। उस दशा में हमारी बंधुता सार्वभौमिक न होगी। तो हमें अपने मंच को इतना विशाल बनाना होगा कि समस्त मानवता उसके अंतर्गत समा सके। यहाँ कहा गया है कि हमें अपने भाइयों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक बुरे अथवा अधम कार्य की प्रतिक्रिया उसके कर्ता पर होती है। इसमें मुझे बनियागीरी की गंध मिलती है पहले हम, बाद में हमारे भाई। मेरा विचार यह है कि चाहे हम ईश्वर के सार्वभौम पिता-भाव में विश्वास करें या न करें, हमें अपने बंधुओं से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक धर्म और मत मानव को दिव्य मानता है और तुम्हें इसलिए उसे न सताना चाहिए कि तुम कहीं उसके भीतर के दिव्यत्व को चोट न पहुँचाओ।

क्षा लाप के संक्षिप्त विवरण

संगीत पर

ध्रुपद और खयाल आदि में एक विज्ञान है। किंतु कीर्तन अर्थात माथुर और विरह तथा ऐसी अन्य रचनाओं में ही संगीत है क्योंकि वहाँ भाव है। भाव ही आत्मा है, प्रत्येक वस्तु का रहस्य है। सामान्य लोगों गीतों में कहीं अधिक संगीत है और उनका संग्रह होना अपेक्षित है। यदि ध्रुपद आदि के विज्ञान का कीर्तन के संगीत में प्रयोग किया जाय, तो इससे पूर्ण संगीत की निष्पत्ति होगी।

आहार पर

तुम दूसरों को मनुष्य बनने का उपदेश देते हो, पर उन्हें अच्छा भोजन नहीं दे सकते। मैं पिछले चार वर्षों से इस समस्या पर विचार कर रहा हूँ। क्या गेहूँ से पिटे हुए चावल (चिउड़ा) जैसे कोई चीज बनायी जा सकती है ? मैं इस पर प्रयोग करना चाहता हूँ। तब हम प्रतिदिन एक भिन्न प्रकार का भोजन प्राप्त कर सकते हैं। पीने के जल के संबंध में मैंने एक छन्नी की खोज की जो हमारे देश के उपयुक्त हो सके। मुझे एक कड़ाही जैसे चीनी मिट्टी का बरतन मिला, जिससे पानी निकाला गया और सभी कीटाणु चीनी मिट्टी की कड़ाही में रह गए। किंतु क्रमश: छन्नी स्वयं सभी प्रकार के कीटाणुओं का जमघट बन जाएगी। सभी प्रकार की छन्नियों में यह खतरा रहता है। निरंतर खोज करने के बाद एक उपाय विदित हुआ, जिससे पानी का अभिस्त्रावण किया गया और उसमें आक्सीजन लायी गयी। इससे बाद जल इतना शुद्ध हो गया कि इसके प्रयोग के फलस्वरूप स्वास्थ्य में सुधार सुनिश्चित है।

ईसा का पुनरागमन कब होगा ?

मैं ऐसी बातों पर विशेष ध्यान नहीं देता। मुझे तो सिद्धांतों का विवेचन करना है। मुझे तो केवल इसी बात की शिक्षा देनी है कि ईश्वर बार-बार आता है, वह भारत में कृष्ण, राम और बुद्ध के रूप में आया और वह पुन: आएगा। यह प्राय: दिखाया जा सकता है कि प्रत्येक पाँच सौ वर्ष के पश्चात दुनिया नीचे जाती है और एक महान आध्यात्मिक लहर के शिखर पर एक ईसा होता है।

समस्त संसार में एक बड़ा परिवर्तन होनेवाला है और यह एक चक्र है। लोग अनुभव करते हैं कि जीवन पकड़ से बाहर होता जा रहा है। वे किधर जाएंगे ? नीचे या ऊपर ? निस्संदेह, ऊपर। नीचे कैसे ? खाई में कूद पड़ो। उसे अपने शरीर से, जीवन से पाट दो। जब तक तुम जीवित हो, दुनिया को नीचे क्यों जाने दो ?

मनुष्य और ईसा में अंतर

अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अंतर होता है। अभिव्यक्त प्राणी के रूप में तुम ईसा कभी नहीं हो सकते। मिट्टी से एक मिट्टी का हाथी बना लो, उसी मिट्टी से एक मिट्टी का चूहा बना लो। उन्हें पानी में डाल दो-- वे एक बन जाते हैं। मिट्टी के रूप में वे निरंतर एक हैं, गढ़ी हुई वस्तुओं के रूप में वे निरंतर भिन्न हैं। ब्रह्म ईश्वर तथा मनुष्य दोनों का उत्पादन है। पूर्ण सर्वव्यापी सत्ता के रूप में हम सब एक हैं, परंतु व्यक्तिक प्राणियों के रूप में ईश्वर अनंत स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं।

तुम्हारे पास तीन चीजें हैं: (१) शरीर (२) मन (३) आत्मा। आत्मा इंद्रियातीत है। मन जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर की है। तुम वही आत्मा हो, पर बहुधा तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। जब मनुष्य कहता है, "मैं यहाँ हूँ", वह शरीर की बात सोचता है। फिर एक दूसरा क्षण आता है, जब तुम उच्चतम भूमिका में होते हो, यह तुम नहीं कहते, "मैं यहाँ आता हूँ, जब तुम उच्चतम भूमिका में होते हो, तब तुम यह नहीं कहते, "मैं यहाँ हूँ।" किंतु जब तुम्हें कोई गाली देता है अथवा शाप देता है और तुम रोष प्रकट नहीं करते, तब तुम आत्मा हो। "जब मैं सोचता हूँ, मैं उस अनंत अग्नि की एक स्फुलिंग हूँ, जो तुम हो। जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं आत्मा हूँ, तुम और मैं एक हूँ" यह एक प्रभु के भक्त का कथन है। क्या मन आत्मा से बढ़कर हैं ?

ईश्वर तर्क नहीं करता, यदि तुम्हें ज्ञान हो, तो तर्क ही क्यों करो ? यह एक दुर्बलता का चिह्न है कि हम कुछ तथ्यों को प्राप्त करने के लिए कीड़ों की भाँति रेंगते हैं, सिद्धांतों की स्थापना करते हैं, और अंत में सारी रचना ढह जाती है। आत्मा मन और प्रत्येक वस्तु में प्रतिबिंबित होती है। आत्मा का प्रकाश ही मन को संवेदनशील बनाता है। प्रत्येक वस्तु आत्मा की अभिव्यक्ति है, मन असंख्य दर्पण है। जिसे तुम प्रेम, भय, घृणा, पाप और पुण्य कहते हो, वे सब आत्मा के प्रतिबिंब हैं, केवल जब प्रतिबिंब प्रदान करने वाला बुरा है, तब प्रतिबिंब भी बुरा होगा।

क्या ई सा और बुद्ध एक हैं ?

यह मेरी अपनी कल्पना है कि वही बुद्ध ईसा हुए। बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी, "मैं पाँच सौ वर्षों में पुन: आऊँगा और पाँच सौ वर्षों बाद ईसा आए। समस्त मानव प्रकृति की यह दो ज्योतियाँ हैं। दो मनुष्य हुये हैं-बुद्ध और ईसा। यह दो विराट् थे, महान दिग्गज व्यक्तित्व, दो ईश्वर। समस्त संसार को वे आपस में बाँटे हुए हैं। संसार में जहाँ कहीं किंचित भी ज्ञान है, लोग या तो बुद्ध अथवा ईसा के सामने सिर झुकते हैं। उनके सदृश और अधिक व्यक्तियों का उत्पन्न होना कठिन है, पर मुझे आशा है कि वे आएँगे। पाँच सौ वर्ष बाद मुहम्मद आए पाँच सौ वर्ष बाद प्रोटेस्टेंट लहर लेकर लूथर आए और अब पाँच सौ वर्ष फिर हो गए। कुछ हजार वर्षों में ईसा और बुद्ध जैसे व्यक्तियों का जन्म लेना एक बड़ी बात है। क्या ऐसे दो पर्याप्त नहीं हैं ? ईसा और बुद्ध ईश्वर थे, दूसरे सब पैगंबर थे। इन दोनों के जीवन का अध्ययन करो और उनमें प्रकट शांति की अभिव्यक्ति को देखो-शांत और अविरोधी, अकिंचन एवं नि:स्व भिक्षु, जेब में एक पाई भी न रखने वाले, आजीवन तिरस्कृत, नास्तिक और मूर्ख कहे जाने वाले-और सोचो, मानव जाति पर उन्होंने कितना महान आध्यात्मिक प्रभाव डाला है।

पाप और मोक्ष

अज्ञान से मुक्त होकर ही हम पाप से मुक्त हो सकते हैं। अज्ञान उसका कारण है, जिसका फल पाप है।

दिव्य माता के पास प्रत्यागमन

जब धाय बच्चे को बगीचे में ले जाती है और उसे खिलाती है, माँ उसे भीतर आने के लिए कहला सकती है। बच्चा खेल में मग्न है और कहता है, "मैं नहीं आऊँगा, खाने कि मेरी इच्छा नहीं है।" थोड़ी ही देर में बच्चा अपने खेल से थक जाता है, "मैं माँ के पास जाऊँगा।" धाय कहती है, "यह लो नयी गुड़िया।" पर बच्चा कहता है, "अब मुझे गुड़ियों की तनिक भी इच्छा नहीं है। मैं माँ के पास जाऊँगा।" जब तक वह वहाँ नहीं जाता, रोता रहता है। हम सभी बच्चे हैं। ईश्वर माँ है। हम लोग धन, संपत्ति और इन सभी चीजों की खोज में डूबे हुए हैं; किंतु एक समय ऐसा आएगा, जब हम जाग उठेंगे; और जब यह प्रकृति हमें और खिलौने देने का प्रयत्न करेगी तब हम कहैंगे, "नहीं, मैंने बहुत पाया, अब मैं ईश्वर के पास जाऊँगा।"

ईश्वर से भिन्न व्यक्तित्व नहीं

यदि हम ईश्वर से अभिन्न हैं और सदैव एक हैं, तो क्या हमारा कोई व्यक्तित्व नहीं है ? हाँ, हैं; वह ईश्वर है। हमारा व्यक्तित्व परमात्मा है। तुम्हारा यह इस समय का व्यक्तित्व वास्तविक व्यक्तित्व नहीं है। तुम सच्चे व्यक्तित्व कि ओर अग्रसर हो रहे हो। व्यक्तित्व का अर्थ है अविभाज्यता। जिस दशा में हम हैं, उस दशा को तुम व्यक्तित्व (अविभाज्यता) कैसे कह सकते हो ? एक घंटे भर तुम एक ढंग से सोचते हो, दूसरे घंटे में दूसरे ढंग से और दो घंटे पश्चात् अन्य ढंग से। व्यक्तित्व तो वह है, जो बदलता नहीं है। यदि वर्तमान दशा शाश्वत काल तक बनी रहे, तो यह बड़ी भयावह स्थिति होगी। तब तो चोर सदैव चोर ही बना रहेगा और नीच नीच ही। यदि शिशु मरेगा, तो वह शिशु ही बना रहेगा। वास्तविक व्यक्तित्व तो वह है, जो कभी परिवर्तित नहीं होता है और न कभी परिवर्तित होगा ही और वह हमारे अंतर में निवास करने वाला ईश्वर है।

भाषा

भाषा का रहस्य है सरलता। भाषा संबंधी मेरा आदर्श मेरे गुरुदेव की भाषा है, जो थी तो निन्‍तात बोल-चाल की भाषा, साथ ही महत्तम अभिव्यंजक भी। भाषा को अभीष्ट विचार को संप्रेषित करने में समर्थ होना चाहिए।

बांग्ला भाषा को इतने थोड़े समय में पूर्णता पर पहुँचा देने का प्रयास उसे शुष्क और लोचहीन बना देगा। वास्तव में इसमें क्रियापदों का अभाव सा है। माइकेल मधुसूदन दत्त ने अपनी कविता में इस दोष को दूर करने का प्रयत्न किया है। बंगाल के सबसे बड़े कवि कवि कंकड़ थे। संस्कृत में सर्वोत्कृष्ट गद्य पतंजलि का महाभाष्य है। उसकी भाषा जीवनप्रद है। हितोपदेश की भाषा भी बुरी नहीं, पर कादंबरी की भाषा हास्य का उदाहरण है।

बांग्ला भाषा का आदर्श संस्कृत न होकर पाली भाषा होना चाहिए, क्योंकि पाली बांग्ला से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। पर बांग्ला में परिभाषिक शब्दों को बनाने अथवा उनका अनुवाद करने में संस्कृत शब्दों का व्यव्हार उचित है। नए शब्दों के गढ़ने का भी प्रयत्न होना चाहिए। इसके लिए, यदि संस्कृत के कोश से पारिभाषित शब्दों का संग्रह किया जाय, तो उससे बांग्ला भाषा के निर्माण में बड़ी सहायता मिलेगी।

कला (१)

यूनानी कला का रहस्य है प्रकृति के सूक्ष्मतम ब्योरों तक का अनुकरण करना, पर भारतीय कला का रहस्य है आदर्श की अभिव्यक्ति करना। यूनानी चित्रकार की समस्त शक्ति कदाचित्त मांस के एक टुकड़े को चित्रित करने में ही व्यय हो जाती है, और वह उसमें इतना सफल होता है कि यदि कुत्ता उसे देख ले, तो उसे सचमुच का मांस समझकर खाने दौड़ आए। किंतु, इस प्रकार प्रकृति के अनुकरण में क्या गौरव हैं ? कुत्ते के समान यथार्थ मांस का एक टुकड़ा ही क्यों न डाल दिया जाय ?

दूसरी ओर, आदर्श को-अतींद्रिय अव्यवस्था को अभिव्यक्त करने की भारतीय प्रवृत्ति भद्दे और कुरूप बिंबों के चित्रण में विकृत हो गयी है। वास्तविक कला की मिली से दी जा सकती है, जो पृथ्वी से उत्पन्न होती है, उसीसे अपना खाद्य पदार्थ ग्रहण करती है, उसके संस्पर्श में रहती है, किंतु फिर भी उससे ऊपर ही उठी रहती है। उसी प्रकार कला का भी प्रकृति से संपर्क होना चाहिए-क्योंकि यह संपर्क न रहने पर कला का अध:पतन हो जाता है-- पर साथ ही कला का प्रकृति से ऊँचा उठा रहना भी आवश्यक है। कला सौंदर्य की अभिव्यक्ति है। प्रत्येक वस्तु कलापूर्ण होनी चाहिए। वास्तु और साधारण इमारत में अंतर यह है कि प्रथम एक भाव व्यक्त करता है, जबकि दूसरी आर्थिक सिद्धांतों पर निर्मित एक इमारत मात्र है। जड़ पदार्थ का महत्व भावों को व्यक्त कर सकने की उसकी क्षमता पर निर्भर है। हमारे भगवान श्री रामकृष्ण देव में कला-शक्ति का बड़ा उच्च विकास हुआ था, और वे कहा करते थे कि बिना इस शक्ति के कोई भी व्यक्ति यथार्थ आध्यात्मिक नहीं हो सकता।

कला (२)

कला में ध्यान प्रधान वस्तु पर केंद्रित होना चाहिए। नाटक सब कलाओं में कठिनतम है। उसमें दो चीजों को संतुष्ट करना पड़ता है----पहले, कान; दूसरे, आँखें। दृश्य का चित्रण करने में, यदि एक ही चीज का अंकन हो जाय, तो काफी है; परंतु अनेक विषयों का चित्रांकन करके भी केंद्रीय उस अक्षुण्ण रख पाना भी कठिन है। दूसरी मुश्किल चीज है मंच-व्यवस्था; यानी विविध वस्तुओं को इस तरह विन्यस्त करना कि केंद्रीय रस अक्षुण्ण बना रहे।



[1] . उन दिनों अमेरिकन समाचारों में विवेकानन्द का नाम विभिन्न रूपों में लिखा जाता था और विवरण अधिकांशत: विषय की नवीनता के कारण अशुद्ध होते थे । १०-३


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हिंदी समय में स्वामी विवेकानंद की रचनाएँ